Monday, April 6, 2020

Hiding Behind One Imaginary State

 Hiding Behind One Imaginary State

Those conceptualizing an imaginary threat of a Brahminical state are in fact the ones who took away a sizable portion of this land and started to build one religious state for their own religious brotherhood, they named it “Pakistan”, the land of Puritan Muslims. They are the ones who almost wiped out the Non Muslim minorities from their land of Islamic brotherhood. The same people and their allies in Kashmir made the entire valley totally free of it's aboriginal Hindu population by engineering their exodus through terrorism from the state. They are the ones who preferred to stay back in a land which they thought would not tolerate or accommodate them. Contrary to this misplaced belief which caused a big divide, Muslims today are not only a thriving second majority here but are given more than one equal status in all respects, more in the sense that certain privileges which are not available to Brahmins or any of the majority Hindus are made available to them and reserved for them as minorities. They have multiplied their numbers 4 times in population. They have made exemplary progress in all aspects of economic, social, educational, political ambit to the extent that they have risen to very commanding positions in all spheres of life. They enjoy a kind of religious freedom which is not even extended to certain sects of Muslims in most of the Islamic Countries.
              
Constitution does not reserve any special privilege to a Brahmin. Neither are Brahmins anywhere selectively near such commanding positions in any of institutions merely on the consideration of being Brahmins, however in many ways and means such privileges are given to many other sections of society on different considerations of caste, tribe, or backwardness. A very miniscule minority of Parsi Indians have made Indians proud by their contribution to Indian economy, art and science, Armed forces and business.

The problem with such Muslims whether educated or Illiterate who are thinking about only their own exclusive existence and are in denial of a collective human diversity is their aspirations for a 7th century Mullah rule in place of a modern state based on equality, fraternity, democracy and freedom of thought. This kind of systems is against the tenets of Quranic Rule. Quran is more or less strictly a book of rules than any religion. These rules are today directly in conflict with one inclusive society modern scientific society because the world has leaped a lot forward from the medieval times, therefore all Christians, Hindus, Jews, I mean all non Muslims who may have understood the importance of a collective world and inclusive world stand totally against the freedom of Islamic rule. To rule without even an iota of criticism of opposition to it's viability, acceptability or plausibility in modern day world. That drives the Muslims to raise all conflicts under different excuses and involve the entire world around these conflicts which are deeply rooted in the religious extremism and obstinate will to enslave others to your religious dictates. This conflict is not just a conflict of civilizations but more so a conflict wherein rest of the world has reconciled to the falsity of religious dictates, and very intelligently kept it away from the political and economic state, Muslims by and large are still glued to a religious dispensation which is totally in contrast to a modern state of affairs.
The conflict is therefore not that of a Muslim or Non-Muslim only but of a dichotomy of accepting all the fruits of modern world created mostly by the science and technology on the one hand (even though contrary to the very beliefs of Islam) and denying all the scientific temper which promotes the societies of scientists and technologies at the same.
The denial in front of pandemic to accept a scientific approach to this problem proves this kind of mind-set working against the very interest of a rational, scientific society.
To rise to the need of the time and create scientific temper among the ranks is therefore the need of the hour.

Wednesday, May 16, 2018

Dehakta Chinar Poetry Collection by Maharaj Shah

  




  
दहकता चिनार
     काव्य संग्रह
महाराज कृष्ण शाह  
                                                      
एक


किस ने किया यह!

आया होगा वसंत वहां पर

फूलों से भरी 

क्यारी क्यारी, 

वन उपवन सब

झूमते गाते

इठलाती खेतों में धानी



सोना उगती सुबह वहां की

किरण किरण हर डाली डाली

बहते झरनों की मस्ती में

झूमती इठलाती वनमाली



कहीं सुनहली शाम किरण

मदबौराई कोमल अलसायी

और कहीं वेगातुर बहती

नवयौवना सी नद मतवाली



लेकिन ख़बर बुरी है फैली

ज़हर हवा में घुला दिया है

धूप खिली छितर तो गई पर

पिघली नहीं बर्फ वहां है।



इक सन्नाटा उतर गया है

दूर दूर तक चुप हर कोई

जैसे विहंग भूले चहकना

जैसे बच्चा भूल गया हो बोली।



क्या तुम सच कहते हो ?

भँवरे भी भूल गये बहकना

क्या कहते हो पेडों पर वहां

अब उगने लगा बारूद है ?

और श्वेत कमल पर 

खून चिपका है।

क्या लाली गुलाब की

अंगारों में बदल गई है?



और न ही कलियों में 

सौरब शेष बचा है।

अब पेडों का शाखों पर 

विश्वास नहीं है।

ना ही जडों पर कोई भरोसा।



खोखली नीवों पर 

इक महल खडा है 

सभी हवा में झूल रहें हैं।

हवा के थपेडे झेल रहें हैं।



आंधी पर आंधी सब उझाड चली है

इधर-उधर अफरा-तफरी में दौड़ रहें हैं

किस ने किया यह

कोई नहीं कह सकता

क्योंकि कोई नहीं है

कि जिस ने नहीं किया हो ये सब।।





दो 



हम तो खानाबदोश हैं



यहां बस्ती है

भले लोग रहते होंगें 

यहीं 

मान गया मैं, बीवी का कहना

हर हाल में मिल कर रहना

मां कहती थी

कभी जब विपदा आये

कहीं बचाकर जान 

भागना पड़ जाये

मिल कर रहना



क्यों कहती हो मां यह सब

कौन भगा सकता है हम को?



हम कम हैं, कमज़ोर भी 

उन को मिला है बल औ शक्ति भी

अभी नहीं पर कभी भी 

कूपित हो सकते हैं

रक्षा उन से करने को

बस युक्ति यही है



यही हुआ था और होता आया है

ग्यारह घर कुल बच पाये थे

लांघ के उच्च शिखर

पीरपंचाल हम छित्तर गये थे

पंजाब, सिन्धु गुजरात, मराठा बंग, विन्ध्य

हिमाचल गंगा, शरण में चले गये थे

क्यों कि शक्ति थी अन्याय संग

और हम विवश हुए थे।





बार बार यह क्यों होता है?  


तुम होती मां तो बतलाती



इतने में बिटिया ने चेताया

धीरे पापा क्या बुदबुदा रहे हो

क्या पहरों अपने ही संग 

बतियाते रहते हो।

इस तरह बस सोचते जाना ठीक नहीं है

इधर भी सांप भयानक विषैले बहुत हैं

सोच समझ कर पग धरना है।



हां बिटया अब जो करना

सोचसमझ कर करना है।।



आतंकित, चकित,   

निरीह अकेले, उझडे, उखडे

अख़बारों की ख़बर नहीं है

अयवानों की नज़र नहीं है।।



शोर वहां का ज़ोर पकड़ता जा रहा है

जो क़ातिल है, उसे बचाया जा रहा है।

जिन की हत्या हुई औ

जो लुटे पिटे हैं

वो समर की धूल हो

निपटे हुए हैं।



चिंता मत कर बेटी हम झेल लेंगें

अच्छा है सांप आदमी से ऐसे

जिस का गरल छिपा रहता है

मौक़ा देख के डंस देता है।

जो किताब का धनी 

मगर भीतर से नाग है

उस से अच्छी यह बरसती आग है।

हम सह लेंगें।



लेकिन बापू क्यों बेवजह किसी का

हम निवाला बन जाये

आओ थोड़ी जुगत लगाए

यहां अपनी मचान बनाये



और हमें अब कुछ भी न चाहिए

हम को बस इस मचान को बचाना है

उन से जिन की मुक्ति में है 

निहित गुलामी की ज़ंजीरें

और जिन का दावा है

कि बस केवल वे सच्चे हैं

जब कि वास्तव में

उन की आस्तीनों में 

झूठ के अजगर छिपे हुए हैं।















तीन



विदा



उसे कह तो पाता कि

जा रहा हूँ

कैसे कह पाता?

हवा ही बेरूखी थी

उठा कर पटक दिया मुझे

सैंकडों पवर्त दूर



यहां इन खुले आसमानों तले

मैं कितनी कोशिश में जुता हूँ

इन पेडों पौदों से बात करने में

कोई मेरी भाषा क्या

भंगिमा तक पहचानता नहीं

ग्ूंगा हो गया हूँ मैं 

इन चालाक देवदूतों के बीच



जो मुझे जानते तो हैं पर

पहचानने से इनकार करते हैं

भला इतना बड़ा चिनार

मैं पीठ पर लाध कर लाता कैसे?

लाता भी तो क्या

यहां रख पाता?

कहते हैं कि इन्हें 

केवल चिानारों का दर्द सताता है

और जो बेवजह उझाड़ दिए गये

वो होते ही उझड़ने के लिए तो हैं



मेरे घर का नीलाम होना

लुटना जलना या हडपा जाना

कोई वारदात नहीं

एक हादिसा भी नहीं

ना ही कोई गुनाह 

उन सब का दर्द बहुत बड़ा है

जिन्हों ने मेरा घर छीनने का 

काम किया है।



उस दर्द की दवा हो

इस के लिए दुआ में सब

पत्थर उठाये

उन को मार रहें हैं

जो उन के दर्द की दवा करते।



बहुत हकीम हैं हाहिम भी हैं ये

इन को किसी की आवश्यक्ता नहीं

बस इन को आज़ाद छोड दो

इन की मनमानी करने को

ये जिन को हूरों और मदिरा 

की जन्नत के बहकावे में

झोंक दिया जाता जिन्दा ही

आग के दहशतखानों में है।













चार



जाने से पहले



जाने से पहले 

तुम्हें ठीक से जी भर कर

देख लिया होता

कौन जानता था कि 

फिर कभी लौटना न होगा

ठीक उसी तरह

जैसे एक दिन मां गई

फिर कभी न लौट आई 

और आते रहे उस के सपने

लोरी सुनाते, गाते गुनगुनाते 

गलबहियां झुलाते

सहलाते थपथपी लगाते



सब कैसे अचानक खो गया



जैसे किसी ने एक बांध तोड दिया

और बस बह गया सब कुछ

पलक झपकते

हम बह गये सब तेज़ पानी की धार में

और बह गये हमारे नीड

तितर बितर हुआ सारा समाज

और सपने 

सामूहिक नीलामी में बेच आये सब

टूट गया भरम कि देश और काल

कोई सच्चाई है।

हम सब यकायक

कालविहीन होगये।

सिमिट कर रह गया अस्तित्व

एक तम्बू भर ज़िन्दगी

लटके रहे सपने 

सूखे ठूंठ पर बिखरी उम्मीदों के संग



जाने से पहले सोचने को 

समय कहां मिला?

मिली एक चिट्ठी 

उस की जिस को हाथ पकड

चलना सिखाया था

बोल दिये थे, किलमा पढ़ाया था

बन्दर से आदमी बनाया था

पर वह आदमी बन नहीं पाया

ओख़न साहब ने उसे

नया किलमा पढ़ाया



चिट्ठी में धमकी साफ थी

आप ने किलमा ग़लत पढ़ाया

आप का किलमा रास न आया

इस लिए आप को मार देंगें 

हम पूरा इनसाफ करेंगें 



कहां जाते हो पौ फटने दो

बीवी ने आवाज़ लगाई

नहीं पहले ही देर हुई 

अब अच्छे से समझा दंूगा

मैं सच्चा क़िलमा पढ़ाता हूँ





धर्म उनका क़िलमा उन का

तुम काफ़िर हो उन की नज़र में

बस जाबिर हो, 

अच्छा है मेरी मानो,

इन सियाह सिरों पर तरस खाओ

उन की नज़रों में ये आ चुकी हैं

इन को उन के क़हर से बचाओ

यहां से भाग जाओ।



जाने से पहले इक बार उसे पूछता 

क्यांेकर मुझ से 

ऐसा छल किया तुम सब ने

मैं ने तो अपना दिया था सर्वस्व

फिर भी

जान क्यों लेना चाह रहे हो?



क्या खतरा है मुझ से तुम को?

क्या छीना है तुम से मैं ने?

किस बात का झगड़ा है सब?



और तभी चैंका सुनकर मैं

मसजिद से अज़ान की जगह

गूंज रही थी आवज़े

काफ़िरो कश्मीर छोड़ दो



छोड़ कर आ गये सब

पित्तरों को पुरखों को

नानी के चरखे और 

नाना के हुक्के को, 

बन्द कमरों में ठाकुर के द्वारे को

हम छोड आये

कश्यप के सारे अवधारों को



साथ में हमारी केवल 

रहीं स्मृतियों के अवशेष

जो धीरे-धीरे बदल गये अंगारों में

जिन की आंच और राख ही अब शेष है

जो अग्नि आकाश के शेखर से

बरसती रही हमारे शेष होते

समृद्ध सभ्य सुसंस्कृत अभिसारों में।



पुंज, पुंज सब हवन हो गये

हमारे तीर्थ, धरोहर, हमारी संहितायें   

हम कुछ अतिबुद्धिवादी, गौरखद्वंद्वादी

अवसरवादी साम्यवादी, मुसलिम उग्रवादी,

हिन्दूवादी चिंतन

के आगे इस देश के मानव को

विवशता में अपना पानी खोते देख

चुप न रहेंगें

हम ने यह कहां सोचा था

जाने से पहले।

क्यों कि मैं ठीक से तम्हें देख न पाया

हम विस्थापित, अभिशापित,

साम्प्रदायिक कहलाये।

और मुझे अनायास ही

वह सड़क छू गई

जो मेरी पनौती बनी आज तक

मुझ से चिपकी है और जो कहीं से भी

किसी भी रूप में वापिस अपने 

घर नहीं जाती

क्यांेकि इस सड़क के बीच कई

आतंक की सुरंगें लाद्ध कर भी 

मैं खुद को शुरू के सिरे पर देखता हूँ।



मैं ऐसी जगह पहुंच गया हूँ

जहां कोई मील का पत्थर नहीं

न फासलों का पता, 

न ही किसी नज़दीक की 

सभ्यता के पद्धचिहन्न

पैर जैसे किसी दलदल ने पकड लिए हों

और समय के घोड़ों को 

जैसे काठ मार गया हो

यहां मौसम महीने दिन

जैसे ग़ायब है

सिर्फ खाली होना और भर जाना

समय बीतने का आभास है।

खबरों और उत्सव वेलाओं तक

सिमटा सारा समाज है।





























पांच

दीवाली

बस अब रहने दो

कैसी दीवली

मुझे कहने दो 

हम ने इस पर्व को 

कितने सहम के मनाया

कश्मीर में दिया जलाना

मना है।



पर्व पावन कहां इधर भी रहा

मलिन और प्रदूषित हुआ है।

दीवाली का पर्व लगता नहीं 

बस तिमर का चीरहरण

ये पटाखे तो केवल हैं धंुआ-धंुआ

बस रहने दो

यह पटाखे तो केवल 

प्रदूषण फैलाते हैं

परिवर्तन तो केवल बस दीप ही लाते हैं।

अब तो हवा स्वच्छ चलने दो

दीपों से जलाओ और दीप जलने दो।



आओ दीपावली पर फिर विचार करें

बारूद से नहीं

पुष्पों से और दीपों से केवल

लक्षमी का श्रंगार करें











छः

मरूस्थल



खण्ड़ित आकाश और बंटी है धरती

अंधेरे और उझाले भी

एक सड़क वीरान

जो रूकी है युगों से

कहीं जाती नहीं

मेरे पैरों से बराबर चिपकी है।



मीलों दूर तक कुछ 

नज़र आता भी नहीं

गांव, शहर, बियाबान, 

किसी सभ्यता के

पदचिहन्न तक नहीं।



बस केवल एक निजर्न

बेशुमार कंटीले पेड़ दोनो तरफ

और असंख्य चींटियों की

मर्मातुर भगदड़

काले सियाह डरावने मेघों का 

अंधकार भरा चीतकार



रात सियाह, संग सयारों की टोलियां

कब कहां मेरे साथ जुड गईं

कुछ पता नहीं।

और

बस एक उझाले का सपना

खुली आंखों 

उलझे चैराहे पर हैरान कर रहा है





परेशान हँॅॅू कि

अच्छा दिन देखने की चाहत में

अंतहीन अंधेरे ने फ़िर आ घेरा है।



पानी और रेत का भ्रम 

मिटता कहां

इस मरूस्थल में।।










सात



सपने जीवन के



चैंकता है मन

जैसे किसी दुःस्वपन

से डर गया हो

जब दिखता है कि काठ कैसे

धू-धू कर जल जाता है

उस की जगह मुझे मैं नज़र आता हूँ

समय कितनी जल्दी बीत जाता है।



कुछ कर नहीं सका

रेत की तरह  

गया

पता ही नहीं चला

सोचते ही सिहर जाता है



जीवन भर उस राह को

एकटक बांचता रहा

जिस का एक छोर पकड़

जान बचाते आया था

पर मेरे इस छोर आते ही 

जैसे वह राह यकायक विलुप्त हुई

कहां गई, क्यों गई

कोई  कुछ भी पता नहीं।

जाने मेरे पग धरते ही क्यों

दूर खिसक जाती है और

लाख मेरे समझाने पर भी

वापस नहीं आती है

और जब इस लम्बी सड़क का

यह छोर सिकुड जाता है

मंज़िल कहां होगी अपनी

कुछ समझ नहीं आता है। 



और वहां निपट दुपहरी 

उन्हें मदमस्त पवन छू जाता है

बन्द कर दुकाने 

उन का व्यापार सो जाता है



सुना है कि उन की तक़दीर

पत्थरों में बदल गई है

शहर जो मुस्कुराता था 

तेरी हंसी

अब बुझे जंगल में गीली लकड़ी सी

जल रही है।   



आठ



प्रतिछाया के मोहपाश में



इस निर्मम सत्य को 

मैं कैसे बोलूं

जकड़ा अपनी प्रतिछाया ने

कैसे छोडों



युगों युगों से मोहपाश में बान्ध रखा हैं

कैसे इन छायओं से में रिशता तोडूं। 



भोर होते मैं रात के सपने का मुंह पोंछूं

धो डालूं सब बास और कुछ नया सोचूं

निकलूं एक कागज़ की नाव पर चढ़ कर

डांवाडोल पतवार से खेनेे

विषम थुलथुल पानी का सागर

आगे पीछे खेवनहार न कोई



दूर अकेले चलते चलते थक जाता हूँ।

अंधयारे उझयाले से भी आस न कोई।



बन्धा हुआ हूं और प्रतिछाया के संग

नाव उम्मीदों की में खेह रहा हूँ।।




नौ



रीते सपने



मैं रीते सपनों से अपना

खालीपन भरता हूँ

यादों पर कुढ़ता हूँ।

उस ने क्या किया होगा मेरे बग़ैर

इन बातों से तंग आकर

बीवी पर बेवजह बरसता हूँ।।



रंग भरती जीवन में

वो धरती छिन गई

छिन गया कटोरी भर

मेरा आकाश

पवर्त के शिखर से

तेरी गहराई आंकने की ललक

दब गई जलते वीरानों की खाक़ ढ़ोतेे।



बहते झरने सा मैं रवां था

सूख गया हँू

बर्फ के पिघलने की आस में

बरसते अंगारों की छाया में

बीत रहा है जीवन 

तेरे पवर्ताें पर दिख रही है 

जमी ठोस बर्फ

और तेरे वन-उपवन, आंगन 

धू-धू कर जला रहें हैं

असंख्य जलोद्धभव



एक बार सोचता हूँ तो

सिहर उठता हूँ 

मेरे बिना कैसे बीती होगी 

उस उपत्यका पर अकेले

तेरी शरद की वह रातें

जिन में हम अक्सर

आने वाले वसंत के रोमांच बुन्न्ाते

गदगद हो पहरों लिपटे रहते

रसकिरणों में केसर के कोंपल खिलते।



मैं रोता हूँ छटपटाता हूँ

अपनी दुर्बलता पर 

दांत पीस रह जाता हूँ

मैं यमदूतों से डर गया

उन की बन्दूकों से सिहर उठा

मेरी वाणी केसरवन में घुसा आतंकी

निगल गया

और शरद का चांद अकेला

मुझे बेबस तकता रहा।

तुम्हारा आंचल सरक गया

हाथ से छूट गया हर स्वपन्न्ा

जेब से बिखरी रेज़गारी सा

जीवन छितर गया।



तुम ने कैसे सहा होगा दानव दंश

कैसे अटकें रहें प्राण

मैला कुचला शरीर

निर्वसन लम्बी रात

सियार बाघ खूनी पंजों के बीच

उतप्त पवन से 

कैसे बचा रखी यह आग।



सोचता हूँ कि किस कारण

हम दण्डित हैं

क्यों अभिशप्त हैं हम

क्या जीवन की

क्षुद्र लालसा ही अपराध

भयंकर है। 



सिमट गया हूँ 

सैलाबी नद सा

बदल गया हूँ

मरूस्थल की क्षीन रेखा में



एक भी नहीं गुज़रा इस पथ से

भीड़ जहां रहती थी

महाकुम्भ की।



जीतेजी तरपित तिरोहित

वनबेलों में बदल गये हम

जहां भी देखे आसकिरण रज

उसी बेल से चिपक गये हम।



अब सपनों में केवल 

बिखरी यादों के धूंधलके हैं

शेष बची संस्कृति सभ्यता का

गूंगापन अब शब्दों में उतर आता है।

मिटा दिया मेरा इतिहास

शेष नहीं अवशेष कोई या उनके नाम

बदल दी है पहचान 

और बेशर्म झूठ को प्रचारित कर

अंधेरे बेचने का 

उन का नया कारोबार

हमारे संचार माध्यमों को 

कर रहा है अलंकृत।



अपराधियों की तरह हमें कुचल कर

वे अपने प्रताडन की

पोथी खोल कर

बांच रहे हैं जगह जगह

और लूट रहें हैं सहानुभूति

देश विखण्डित करने में

पा रहें हैं कुछ नरपिशाचों से सहयोग।।



नहीं पराजित सत्य 

कभी होता है

बहा दिया जो मासूमों का 

रक्त उन्हों ने

चढ़ा गये जो वेदी पर 

उन दुद्धमुंहों को

जिन को अभी समझ 

न देश दुनिया की कुछ थी

जो उन को तुम धर्मयुद्ध में झोंक गये हो

उन का खून कभी मुआफ न होगा

देना होगा बराबर मोल तुम्हें भी

खून ग़रीब के बच्चे का 

पूरा हिसाब लेगा।।



कैसे देख सकी बच्चे का तड़पना

तुम ने कैसे खून के आंसू पिये होंगें

सोचता हूँ तुम सब कैसे मेरे बिना

जिये होंगें।




दस



दौड़



मैं दौडा था

आगे का रास्ता 

बहुत पीछे छोड़ा था



मुड कर क्या देखना था

मैं दुम दबा के दौडा था

उस राह को भूलना

कठिन है बहुत

जिस राह मैं भाग कर आया



एक अंधेरी खोह थी

जिसे चीर कर आये थे

हम एक साथ



और सवेरे एक उबलते पर्वत के लावे से

चिपका दिये गये थे 

हमारे पाँव 



याद करूँ मैं क्यों यह सब

जब कि मेरे भी हाथ पैर 

अब फ़िर से दौडने लगें हैं।


क्यों न मैं अपना सुख ओढ़ कर

बैठ कर चुपचाप चूस्ता रहँू

नव प्यालों के जाम



बहरहाल मरना तो सब को है

फ़िर क्यों न ठाठ से मर जाउँ। 



पार कर गया है जब

हर दर्द अपनी हद

और

अब जब कि दर्द में ही

सारा जीवन कट गया

फिर अब कौन डरता है 

कि तुम क्या करने जा रहे हो 

मेरे साथ

मैं ने तो जीवन भर तुम्हारी कामना में

दर्द से निबाह करना सीख लिया

जैसे सीखते हैं वे पशु पलना

जिन के नथुनों में लोहा भरा होता है

और आंखों पर कायदे से 

पटियां रखी होती हैं

उन्हें दिखता है बस वही

जो चाबुक दिखाता है 

और ज़रा भी अविज्ञा पर

नथनों में कसे लोहे को

अपने रक्त का स्वाद चख जाता है।







ग्याराह

समय



धीरे धीरे मैं

समय से अनभिज्ञ

समय की भेंट हो रहा हूँ



धीमे धीमे दूर 

क्षितिज का छोर लांघता

धरती में धंस रहा हूँ



बहुत देर पहाडों की ओट में छिपता रहा

नदी का कलरव सुनने को रूकता रहा

चाहा कि रूक कर यहीं ठहर 

सारा जीवन बिता लूँ

कहीं इस जंगल के ठंडे कोने में



सागर में विलीन होने से पहले

तनिक करूं विचार कि

क्या मिलता है मुझे

ठस तरह खुद को जलाते

उगने और डूब जाने से।



देखता हूँ वहां जहां एक शहर

शमशान में बदलता है

मेरे विलीन होते ही, 



यह चहचहाहट जिसे

आवाज़ों का अनर्लगल शोर 

दबोच लेता है

पंख समेट जब बाज़ के भय से

परिंदों का संसार सहम जाता है

मुझे सागर अंक में भर देता है

पर्वत आंचल में छिपा लेता है

महक, खुशबू, भंवरें और तितलियां

सब सो जाते हैं



यांत्रिक उन्माद में लीन

हम सब के भीतर हवा सीसा पिरोती

गुज़र जाती है



अवकाश किसे कि सोचे

क्यों उगता और डूब जाता हँू 



कि जिस राह चल पड़ा हूँ

निरन्तर चलता ही जा रहा हूँ

अपनी ज़मीन से जुदा

आसमान से कटा

निरन्तर शून्य से लड़ता

शून्य भरता, मौसम को 

अख्बारों में पढ़ता



दूर बहुत दूर 

नज़रों से ओझल होते

एक सिक्के के आकार में बदलते

उस तरफ उगते 

चांदी के छितरे रंग में उगे

छायाओं के स्वपनिल 

ताजमहल बुन्न्ाता हूँ।।



बारह

बीत जाने तक



स्वप्न सा जीवन

बीत जाता है

चैंक उठता है मन

जब खुद को

अकेला पाता है



सफर में 

कौन कब कहां 

छूट गया, याद कहां रहता है



कुछ यादें मगर 

पीछा नहीं छोडती

बार बार खरोचती हैं

कटोचती हैं



पहाड सा लगता था जो

सब पल भर में सरक जाता है

हाथ खाली किसे भाता है?



कांच सा टूटता है जो

दिल में चुभ जाता है।।



क्षोभ, मोहपश का 

कहां टूट पाता है?

अगले जन्म की व्यथा आस में

यह जन्म छूट जाता है



मैं ने किया यह सब

कहते मन इतराता है

और

लम्बी सडक का छोर

सिकुड जब जाता है

मंज़िल कहां थी अपनी

कुछ समझ नहीं आता है



बेवजह ही मन बहुत 

घबराता है।






त्ेाराह



मूक प्रश्न



मौन भीतर तक 

भाषा को तरसता

खो गई जो 

हवा बदलने के साथ ही

एक दिन

जैसे चिानारों से झर गए पत्ते

फिर नहीं उग आये कभी

एक 

जैसे जला गया कोई

झाडे भर अपनी कांगडी

सुलगाये रखने को

राख कर गया मुझे

लिपटा कर खुद की त्वचा संग

कुछ देर के सुख के लिए



और अब मेरे सारे शब्द और अक्षर

कोई पढ़ नहीं पाता

न कोई सुन पाता है मेरे वाख़

मै मूक घोषित कर दिया गया हूँ

बहरे चिनारों के बीच

मैं बिलकुल तिलांजलित हूँ



रात मेरे काबू से बाहर

दिन किसी जादूगर सा

मुझे छलाता है

मैं लाख सावधान हो कर

अपनी ग़लतियां

बार बार दोहराता हूँ

फ़िर भी सूरज की एक किरण

जो उस बारीक छेद से

मेरे अंधेरे में लकीर सी खेंच देती है

मैं अपने भीतर भर कर

अंधेरे से दो दो हाथ होता हूँ

और जुगनुओं सा चमक जाता हूँ



मैं दिखने लगता हूँ

पर एक कीडे सा

नकार दिया जाता हूँ



धीरे से तिरोहित हो

उस गट्टर में 

जिसे पहली नज़र में

हर अनजान व्यक्ति

गंगा समझने की ग़लती करता है।



अब जबकि आकाश सिमट कर

रह गया है एक फटी छतरी सा

और पांव की ज़मीन 

जैसे निगल गया हो समय

यह अटके सहमे क्षण 

जीवन का बोध कराते

हमें नई भाषा से अंगीकार कराते हैं

जो शब्द्धार्थ विहीन रसहीन जीवन

का अर्थ हमारी नसों में 

प्रवाहित कर रहें हैं।

हम मर मर कर जी रहें हैं।



चैदाह



कुत्ता गली का



मैं गली का कुत्ता 

अपनी मस्ती में चूर

फाक़ाकश, निडर , 

लडने को उतावला 

किसी एक का न होकर

सब का रख कर लिहाज़

गुज़ारा हर हाल में करता हूँ

धूप छांह बरसात से 

छिपता, लिपटता, उखछता खिलता

खेलता, कुढ़ता

भौंकता, गुर्राता

जैसा भी

खुश बहुत रहता हूँ

न गले में पटा पहनता हूँ

न किसी के हुक्कम से

मूतता या पोटी करता हूँ

मैं तो दुम कमर तक उठा कर

अपनी इच्छा से भौंकता हूँ

पर ये पडोस के घर में

पल रहा है जो नाज़ों से

मुझे पट्टे के फायदे गिनाता है।

और दुम दबा कर पैर चाटने का

मज़ा समझाता है

मन तो मेरा भी करता है 

कि रहूँ मैं भी शान औ आराम से

पर उसी क्षण

अपनी मस्ती का मूल्य समझ आता है

जो मुझे गली न घाट का कहते हैं

वो कितनी खुशफहमी में रहते हैं।




पंद्राह



तपती बहार



अब जो भी है होना

तेरे साथ सहूंगी

पूछूंगी न इक बात

तेरे साथ रहूँगी।



इस अजनबी दुनिया के

आवारा शहर में

रह लेंगें कहीं भी हम।



मैं ज़िद्ध न करूंगी

न रूठूंगी, शिकवा न करूंगी

आह तक न भरूंगी



रहने को कोई घर न मिला

तो क्या ग़म है?

घर मिल गया तेरे दिल में             

तो यही क्या कम है!



तुम ने तो मुझे दुनिया की

मल्लिका बना दिया

आंखों में मुझे प्यार से

जो ऐसे बसा दिया!



क्यों हम फ़िर गिला करें

या अजनबी बने फ़िरें

इस भीड़ के भीतर चलो

हम भी घुम हो कर रहें।



अब क्या सुनायें इन्हें

लुटता है चमन जब कोई

तकलीफ लुटेजाने की 

उतनी नहीं होती

जितनी कि बस इस बात से

परेशान हैं हम सब।



वो जान के हर बार पूछते हैं

लुटने का सबब जब।



हम कौन हैं, क्यों हैं

आयें हैं  कहां से 

किस किस को बतायें

कि सतायें गये क्यों हैं

बस इतना समझ लो कि

वह शेख़ साहब था

और दीन की तबलीक़






सोलाह



सहवास 



फ़िर इसी अहसास से गुज़रा हूँ

फ़िर लजित सहवास से गुज़रा हूँ



सुबह आते ही बासी हुए सब

देह हो या कहीं आत्मा की बात

दरीचे, गलीचे, लिहाफें हो या तकिइये

उमंगें तह ब तह चिंदी हुईं सब



उठ गया सपनों पर से विश्वास

नींद गहरी है टूटती ही नहीं।



ज़िन्दगी की तरह सियाह

तेरी नज़रों में थक गया

झांकते ही मन मेरा।

बोझ तेरा उठा न सकूंगा यह

बदन भारी ही अपना कम है क्या?



रात भर सोचता रहा सूरज

सुबह इक सियाह

आसमान मिला।



रह गई शायरी किताबों में दबी

सच कितना मुझे गुस्सा आया

झूठ कह कर इन्हों ने क्या पाया?



घुट गया दम कि हवा बन्द थी

खिड़कियों के किवाड खटकाये

सोचा कि हो न हो शालेमार से

अब एक खुशबूदार झोंका टकराये



दूर तक काले सियाह दिन का था राज

कौए और गिद्ध थे बदबू थी 

और दौरे बेनियाज़

बस कि बंद कर के खिडकियों को मैं



सोचने फिर से लगता हूँ आफ़ताब।।



सब हुआ यक्ख़बस्त

और सूरज बहुत दूर से 

बुझते दीपक सा लाचार

मुझ पर हंस रहा है।



किस ने अंगडाई ली पहलू में

कौन उबासियों में डुबो गया

यह मेरी पहली थी सुहाग की रात

या जीवन भर गुडसाल में

रहने की बात



सतराह



अथक राह 



अथक राह, अनगिनत मुसाफिर

जान न पहचान कोई

एक अंतहीन सफर

और भटकता मन

रेल पर गाडी की तरह

हिचकोले खाता

खोजता पथ, आगे और आगे

जाने कहां छूटा था स्टेशन

पता नहीं अब कहां पर 

मिलेंगें लुटे हुए वो ख़त,

और तमाम सबूत

जो बता सकते मेरी पहचान

मेरा प्रदेश, पहनावा या मेरे

नादिम,साक़ी,शबनम

मेरे महजूर, रसूलमीर

वहाब खार, और मेरी लल

सब कोई चोर

उठा कर ले गया

मेरा जेबखर्च और रेज़गारी 

तक ले गया

मुझे कर गया बेहाल

बेशक्ल और बेअवहाल या ख़दोखाल, 

मैं बस समय की धार सा

बहता गया और एक छोर से दूसरे

केवल अपनी गति मांपता रहा।



सब कुछ बहा के जो ले गया

उस सैलाब के उतरने की

अथक प्रतीक्षा

और कहीं न पहुंचाने वाली

यह लुटी पिटी गाड़ी

पानी पर तैर कर

चलते जाने की उम्मीद में

पैरों की ज़मीन तक विलुप्त है



कुछ तो है जो बदलना चाहता है

कुछ तो है जो बदल रहा है

बहुत कुछ बदल गया

सब कुछ ही तो

न बदला है तो बस हमारा यह

अंतहीन सफर, यह अथक राह........  

18

याद है ना



किस तरह ज़िन्दगी धीरे-धीरे

फिसल गई

तेरी आहट सुनते उम्र इक निकल गई

अब आ रहे हो, अब ले चलोगे मुझे

आंख दहलीज़ पर 

इस उम्मीद में टिकी रहीं

कैसी थी तुम

कैसा चेहरा-मोहरा था तेरा

याद करता हूंँ तो 

धुंधले बादलों में चांद सी

एक शीतल रात के झुरमुठ 

की छितरी चान्दनी

मुझ को खेतों में खड़ी

नज़र आती कहीं

दौड़ कर तेरा मैं दामन थाम कर

पूछता हूंँ कुछ तो बोलती हो 

प्यार में अच्छी नहीं यह हडबडी।

19

अटूट रिश्ता



रिश्तेदारी क्या खूब रही

घर जलाये

बेघर किया

शहर शमशान में बदल दिया

नदी सहती रही

नीर बहता रहा

धरती सिकुड़ती गई

और लोग बसते गये

सब कुछ ही तो निगलते गये

और अचानक अब

पुल के ढ़ह जाने की

रिश्ता ख़त्म होने की

चिंता भी जताते हैं

आंखें भी दिखाते हैं।।



शहर उझडना, धरती का सिकुडना

हवा का रूख़ बदलना

जिन्हें दिखा नहीं

वे आज पुलों के टूटने की बात करते हैं



क्या वे सब देवदूत थे

जिन्हों नें आंधियों का आवहन किया?

या कि वे धर्मदूत थे

जिन्हों ने आंधियों को धर्मसंगत ठहरा कर

इन में कूद पड़ने के धर्मादेश जारी किए।



क्या ईवरीय सैनाओं के संगठन

कभी मनुष्यहित में हुए हैं?

या कि यह प्रभूसत्ता ही 

घातक शत्रु रही है मनुष्यमात्र की!



भय और पीडा

क्या प्रभू विधान है?

पाप और पुण्य

ही क्या

प्रभू का समग्र चिंतन है?

स्वर्ग वा नरक ही क्या

मात्र श्रय-दण्ड परिमाण है!

तब फ़िर क्या है उस का संसार

क्यों है, किस लिए, किस के लिए है?



यह तो बताना पडेगा कि कैसे

कुछ लोग कह गये स्वयं को

एकमात्र दावेदार ईशवरीय संप्रभुता का



और रहे सब पीटते हज़ारों साल

आंख मूंदकर उन के कहे आदेश।

यह तो समझना होगा

भयभीत और त्रस्त, दुःखी व आक्रांत का

क्या भला हुआ है

इस प्रभूसंरक्षण में



तो क्यों न मुक्त हों

व्यर्थ के इन नागपाशें से



जगत कल्याण पथ पर

चल कर 

अंत करें दुःख, भय, का

हो जायें एक

और सोचे कि मानव जो करता है

वो मानव रह कर,

कभी न कर पायेगा

ईशवर या उस का कोई देवदूत बन कर।।





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20


अनवर्त प्यास


कैसे पल भर में सूख गया

सब नदियों का पानी

और हम सब

केवल एक बून्द जीवन की खातिर

भरी दुपहरी सारी की सारी 

धूप ओढ़ कर

हिमालय की तराई 

उतरने को

चढ़ते गये शिखर दर शिखर

अपने नन्हें अरमानों को 

प्यास के मारे सूखता देख

तड़प रहे थे

जल से खद्धेढ़ हमें जलोदभव 

अट्टहास में विक्षपत हो

देवों को ललकार रहा था।



देव सब उस को मनाने 

स्तुति में उस का जयगान गाने में

मग्न हुए थे।



और उन के मानस पुत्र सभी

व्यस्त दिखें थे 

देवलोक को जलोदभव की

बल, बुद्धि और विद्या की 

प्रशंस गाथा सुनाने में।



दैत्य अद्धभुत बलशाली है।

आतंक उस का विकराली है।

डरते सभी इसे थे जब 

हम अपना कारवां 

अपने सपने और नन्हें शैवाल

अपनी उझडी, उधडी गोद में ले कर

भयभीत हो

अंधेरों को चीरते जलोदभव से 

दूर भग रहे थे।



देवलोक स्तुति में जलोदभव के व्यस्त था

इसे बात से अतंःकरण हमारा त्रस्त था।



21

कौन उझाड़ गया सब ?



शहर का उझड़ना

धरती का सकिुड़ना

हवा का दूषित होना

दिखा नहीं जिन्हें

वे आज पुलों के टूटने पर

अफसोस जताते हैं।



क्या वे सब थे देवदूत

या कि कोई धर्मदूत

जिन्हों ने आंधियों का 

ईशादेश कह आवाहन कर

स्वागत किया।



क्या कभी ईशसेनाओं ने

मनुष्य का कुछ भला किया है?

या कि यह प्रभूसत्ता ही

तुमहारी कायरता का अंतिम आसरा है?


भय और पीड़ा भी क्या कभी 

हो सकता है प्रभूविधान

पाप और पुण्य ही

क्या प्रभू की सब से बड़ी चिंता है!

क्या स्वर्ग और नरक ही

प्रभू अंनुशंसा या प्रताड़ाना का 

मात्र अभियोजन है। 


वो जो दावेदार हैं 

अनुसरण करने वाले

ईशकथन का

बता तो दें क्या भला हुआ

किसी का उन के संरक्षण में?


भयमुक्त होना है तो 

तोड़ कर फैंकनी होंगीं

नागपाश की ये लचीली बेड़ियां

अपनाना होगा

प्रकृति के मूल सत्य को

हराना होगा किसी भी मूल्य पर

इस दैत्य असत्य को

जो हत्या कर के ईश्वर की

फैलाता है भ्रम और 

कुचलता है पैरों तले 

हर ईशवरीय तत्व को।   

22

रश्मि



है अंधियारा घना

रूकना नहीं है

सफ़र लम्बा सहीे

थकना नहीं है

हराना है उसे

जो कुचल के गया है

करूं मैं क्या

कहना नहीं है

तिम्र का राज्य मिटना

तय हुआ है

वो देखो व्योम में

रश्मि उगी है।

23

हौसला 

आसमान दिया
छत भी देगा,
पांव दिए मंज़िल भी देगा,
रास्ते तो खोज लें,
चलना तो सीख लें
ज़मीन पर खड़े होने का
हौसला तो पैदा करें
सिर्फ सोचने से कुछ नहीं होता
जैसे सिर्फ दिशाहीन
दौड़ने से आदमी
कहीं नहीं पहुंचता।
ज़ाहिर है,
जन्म मैं ने पाया है
जीना भी मुझे ही होगा
और मरना भी।
फिर मैं क्यों किसी की आस करू
क्यों भला दूसरों का समय
ह्रास करू,
क्यों कोई विलाप करूं।
खेल है यह, जी भर कर खेलो इसे
चाहो तो उदासीन हो कर
सिर्फ झेलो इसे।
ईश्वर से कुछ नहीं मांगो
वो पहले ही सब कुछ लुटा कर बैठा है ! 

24
थमी धरती
स्तब्ध है शून्य
थमी है धरा
ठहर गया है मौसमों का
आना जाना
उदास चांद
निरख रहा है
मेरा बसना उजड़ना
बार बार
रोना हंसना।
कोई नहीं बचा है यहां
सब के सब कहां गुम है
ना खुदा वाले दिख रहे
ना कोई नाखुदा।


जहाँ सूरज उग नहीं पाया

यही होता है यही होता आया है
कटे जंगल पर शहर उग आया है।
हजारों लोग दरबदर फिरते रहे
तभी जा कर यह ठहराव आया है।
वह जो गांव और शहर के बीच अटका है।
उसी के सर गुनाहों का बोझ आया है।
पिघल गए है पैर और पेट हाथों में ले कर
कुचल के काफिले से खुद को बचा के लाया है।
सहर हुई सुबह भी हुई लेकिन
जहां अंधेरा था वहां सूरज उग ना पाया है।
25
कोरोना
दुख तिलमिला उठा
सुख दुबक के सो गया
एक पल बदलते
क्या से क्या हो गया।
घरों में कैद रहना
एक फ़र्ज़ हो गया
ज़िन्दगी के नाम
यह कर्ज हो गया
अब भी उम्मीद उनको है
आसमान से मदद की
जिन के आंगन से गायब आसमान हो गया।
26
मुझे पता है
मुझे पता है कहां खड़ा हूं
मै कहां किस से लड़ा हूं
आग बुझाने आया था
खुद आग बना झड़ा हूं।
प्यास इतनी कि खारा सागर पी जाऊं
जीवन वो कि टांग कील पर रख जाऊं
रोज़ पूछते हो कि कैसे हो
जी रहा हूं बस कि और कैसा हूं।
प्यार करना ही बड़ा गुनाह हो गया
सारी दुनिया में मैं तन्हा हो गया।
नहीं आया अपनी सूरत छिपा के रहना
इस लिए पहले ही दाव में सब हारा
गया सभी कुछ जो भी सहेज के रखा था
क्या रखा था कहां रखा याद नहीं
लेकिन कुछ तो है
जो खोजते दिन गिनता रह जाता हूं
तेरे बिन कैसे जी पाया
सोचता रह जाता हूं।
अब तुम कहा और कहा मै पहुंच गया
सपने थे बस सपने से दोनों बीत गए।


संद्या के दीवट सा जला हूं
अभी अभी तो रात हुई है
कहां मरा हूं।
जलते जाना है आखरी बूंद शेष है।
सुबह का सूरज देखने में अब क्या धरा है?
वैसे भी अकेले जला हूं मै कोने में इक
किस का घर रोशन करता
जब स्वयं बंदा हूं।
27

Nirantar


मुझे आता है तैरना
बर्फिली नदियां,
उफनता पदमसर
मै क्षण भर में
ऊंची चोटियों
को पार कर जाता
मुझे आदत थी
लड़ना आंधियों से
लेकिन में समझा नहीं सका
एक हठीले शब्द को
इनके जीवन का सार
एक शब्द, जिस ने इन के
अर्थ बदल दिए मेरे लिए
"खुदा" और मुझे फेंक दिया
कोसों दूर इन सब से।
यह किस ने किया?
खुदा ने या उस ने
जो उसका है अलम्बरदार बना।
हे शिव तुम चुप क्यों हो?
हे कैलाश, तुम झुके क्यों हो
री वितस्ता तुम बहती क्यों हो?
अरे नीरव वन
तुम कब अपना मौन तोड़ोगे?
या फिर हमें सदयों तक
अकेला छोड़ोगे।।
मै रूप बदल कर आऊंगा
फिर फिर कर गीत तेरे गाऊंगा
तेरे बच्चों को सुनाऊंगा।।










               



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